(बॉलीवुड के अनकहे किस्से) एनएसडी, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी और एफटीआईआई

एनएसडी यानी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली से निकले समर्थ अभिनेताओं की प्रथम पंक्ति में ओम पुरी और नसीरुद्दीन शाह के नाम बड़े आदर के साथ लिए जाते हैं। नसीरुद्दीन शाह ने अपनी आत्मकथा जो कि पेंगुइन बुक्स से प्रकाशित है में एनएसडी की पढ़ाई, वहां ओम पुरी से मुलाकात और फिर एफटीआईआई में एडमिशन के बारे में विस्तार से लिखा है।

नसीरुद्दीन शाह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में अपनी पढ़ाई के समय नाटकों में हिस्सा लेते रहे थे और वहीं उन्हें जब एनएसडी यानी ड्रामे के स्कूल के बारे में पता चला तो वे चौंके, लेकिन यह जानकर तो और भी चौंके की वहां पढ़ाई के साथ 200 रुपये का वजीफा भी मिलता है। एक बार उन्हें एनएसडी में बर्तोल्त ब्रेख्त के नाटक Caucasian Chalk Circle जिसे पूर्वी जर्मनी के कार्ल वेबर ने निर्देशित किया था को देखने का अवसर मिला। नाटक देखकर उनकी सांसें रुक-सी गईं ,उन्हें यह नाटक इतना लाजवाब लगा कि उन्होंने पक्का इरादा कर लिया कि अब तो एनएसडी में प्रवेश लेकर ही रहूंगा। हालांकि बाद की क्या संभावनाएं थीं उसके बारे वे कई किस्से सुन चुके थे जैसे कि यहां के स्नातक “जहां से आते हैं वहीं वापस चले जाते है” और कैसे वहां के दो सबसे मकबूल छात्र, पति-पत्नी ओम और सुधा शिवपुरी जरा-सा रेडियो और टीवी के सहारे दाल-रोटी कमा रहे हैं के बारे में जानकर भी उनका इरादा जरा भी नहीं डगमगाया।

यह 1969 का वर्ष था। तब कभी-कभी किसी नाटक में प्रमुख भूमिका निभाने के 50 रुपये मिलते थे। हां उन्हें यह बात जरूर खटकी थी कि यहां शुरुआत में पहरेदार या हरकारा बनना पड़ेगा। खैर उनका दाखिला एनएसडी में हो गया लेकिन इस बीच वे परवीन जो उनसे 14 वर्ष बड़ी थी से अलीगढ़ में विवाह कर चुके थे। एनएसडी में एडमिशन के पहले माह में ही उनकी बेटी हीबा का जन्म हुआ। एनएसडी में उनका पहला क्लास नेमीचंद जैन ने लिया। उन्होंने क्लास में जब हिंदी के कौन-कौन से नाटक पढ़े हैं जैसा सवाल पूछा और जब पूरी क्लास में केवल उन्होंने न में अपना सिर हिलाया तो उनकी आंखों में उनके लिए बस हमदर्दी के अलावा कुछ न था। एनएसडी में सबसे पहले उन्होंने बच्चों के नाटक द लिटिल ब्लू हॉर्स में काम किया और जब अखबार में अपना नाम छपा देखा तो फूल कर कुप्पा हो गए। दो नाटकों में छोटी भूमिकाएं करने के बाद इब्राहिम अलकाजी ने उन्हें लोक नाटक जस्मा ओडन में दरबारी गायक बारोट की भूमिका इस भरोसे के साथ सौंपी कि वे अपने सुरों को सुधारने की कोशिश करेंगे, लेकिन वे अपने मंसूबों में कामयाब न हो सके।

इस बीच मुंबई, पुणे, हैदराबाद और बेंगलुरु के लिए एक माह के दौरे का ऐलान हुआ है जिसमें चार नाटक किए जाने थे और चुना गया एक नाटक Caucasian Chalk Circle भी था जिसे देखकर उन्होंने एनएसडी में एडमिशन लेना तय किया था। इसके मुख्य पात्र अजदक की भूमिका उन्हें मिलना इसलिए भी बड़ी बात थी कि वह प्रथम वर्ष के छात्र थे और प्रमुख भूमिकाएं तृतीय वर्ष के छात्रों को ही मिला करती थीं। एनएसडी के पहले साल का रिजल्ट लेकर जब वे अपने पिता के पास पहुंचे तो ऐसा पहली बार था कि जब वे नीचे से नहीं बल्कि ऊपर से दूसरे नंबर पर थे। लेकिन इस पर भी पिताजी खुश नहीं थे। उनका कहना था “इस कदर खराब तलफ्फुज और बेकार आवाज के साथ भला अदाकार कैसे बन सकते हो?” इस दौरान राजेंद्र जसपाल से उनकी दोस्ती हुई। एनएसडी के दूसरे साल इब्राहिम अलकाजी ने उन्हें और जसपाल को अभिनय की बजाय निर्देशन के सूची में डाल दिया। अब उन्हें प्रमुख भूमिकाएं मिलनी बंद हो गई थीं। लेकिन उन्हें इसकी ज्यादा चिंता नहीं हुई। निर्देशन सीखने की कोशिश में उन्हें मजा आ रहा था पर निर्देशक बनने की उन्होंने कभी सोची नहीं थी। उनकी नजर में निर्देशक बनने का मतलब था सेट बनाना, लिबास का बंदोबस्त करना, रस्सी की सीढ़ियां चढ़कर लाइट लगाना आदि।

एनएसडी का दूसरा साल खत्म होते हुए एक काबिले-जिक्र बात यह हुई की तीसरे और आखिरी साल के अगले नाटक के लिए ऑडिशन होने वाले थे। यह नाटक हिंदी में अनुवादित काबुकी नाटक इबारगी था जिसका निर्देशन जापान से आए एक काबुकी विशेषज्ञ करने वाले थे। उन्हें भरोसा था कि मुख्य भूमिका उन्हें ही मिलेगी लेकिन स्कूल पहुंचने पर पता चला कि सिर्फ अभिनय के छात्रों को ही चुना जाएगा । निर्देशन वालों को बस मदद करनी होगी। उनके और जसपाल के सपनों का महल ढह गया। मुख्य भूमिका गई इनके एक और साथी ओम पुरी को जो इतने दिन तक निहायत खामोशी और लगन से अपने हुनर को तराश रहा था। नाटक पेश हुआ तो ओम को पहली बार तड़क -भड़क योद्धा के रूप में देखकर सब अचंभित रह गए । उन्हें स्वयं लगा कि ऐसी एक्टिंग शायद वे न कर पाते । उनका मानना था कि ओम थोड़ा सा खुर्राट सही पर हमेशा आदर्श छात्र सद्चरित्र , साफ नियत, उदार, समय का पाबंद और सुलझी सोच विचार वाला बंदा था। उसकी इस लाजवाब अदाकारी ने सबके होश उड़ा दिए थे। उसने यह भी सिद्ध कर दिया था कि उसके अद्भुत अभिनय के पीछे कोई जादुई नुस्खा नहीं था बल्कि उसकी अपनी मेहनत ,काबिलियत और ऊर्जा थी।

फिर तो ओम बहुत अरसे तक उनके लिए आदर्श से रहे। इसके बाद उन्होंने और जसपाल ने अलकाजी से निर्देशन की बजाय अभिनय में भेजे जाने की बात कही। अलकाजी मानने को तैयार न थे। आखिरकार अलकाजी ने उनको नाटक ए डॉल हाउस का निर्देशन करने के लिए दिया जिसकी परणिति देखकर अलकाजी ने दोनों को फिर से अभिनय की कक्षा में भेज दिया। इसी दौरान एक दिन कनॉट प्लेस में घूमते हुए नसीर ने रीगल में चल रही फिल्म पिया का घर देखी। उसमें तकरीबन सभी भूमिकाएं भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन प्रशिक्षण संस्थान एफटीआईआई पूना के निकले हुए एक्टरों ने की थी । उन्होंने तुरंत एफटीआईआई में एडमिशन लेने का निर्णय ले लिया।

चलते-चलते

ऑडिशन के लिए मुंबई जाने और महीना भर खर्च के लिए जसदेव सिंह से उन्होंने चार सौ रुपये की भारी भरकम रकम उधार ली जो उन्होंने आज तक नहीं लौटाई है। यह ऑडिशन अभिनय विभाग के प्रमुख प्रोफेसर रोशन तनेजा की निगरानी में हुआ। चयन बोर्ड में जया भादुड़ी थी जो अपनी पहली फिल्म से स्टार बन गई थीं और ओम शिवपुरी जो एनएसडी के ही पास आउट थे और छात्रों के हीरो थे। बाकी दोनों उन्हें लेने के पक्ष में नहीं थे क्योंकि वे एनएसडी से अभिनय ही सीखकर आए थे लेकिन ओम शिवपुरी के इसरार पर उन्हें चुन लिया गया। उधर, जसपाल और ओमपुरी को भी प्रवेश मिल गया ।