‘मुगल-ए-आजम’ के लिए जब मधुबाला का चयन हुआ तब तक फिल्म की थोड़ी बहुत शूटिंग की जा चुकी थी। इसलिए अब सभी कलाकारों को अनारकली का रोल अदा करने जा रही मधुबाला को देखने और उनके साथ काम करने का इंतजार था। फिल्म में मधुबाला का पहला दृश्य वह था जहां वे संगमरमर के बुत के रूप में खड़ी होती हैं। इस दृश्य को करने के लिए मधुबाला को कई घंटे मेकअप में बिताने पड़ते थे। उनका चेहरा और कपड़े के बाहर दिखाई देने वाले सभी अंग चिकनी मिट्टी से लीप दिए जाते थे। शरीर पत्थर सा दिखे इसलिए उनको एक रबड़ की पोशाक भी पहनना पड़ती थी।
मुंबई की गर्मी में घंटों तक ऐसी अवस्था में रहना काफी तकलीफ देय था। अगले सीन में उन्हें एक गाना गाते हुए उस पर नृत्य भी करना था जिसे लच्छू महाराज ने कई दिनों की कड़ी रिहर्सल से तैयार कराया था। यह पूरा नृत्य उन्हीं पर फिल्माया गया और उन्होंने कहीं भी किसी डुप्लीकेट का इस्तेमाल नहीं किया। सेट पर उपस्थित सभी लोग मधुबाला की मेहनत और उसकी प्रतिभा से प्रभावित होते जा रहे थे। सबको यह समझ में आ गया था कि वह फिल्म का जरूरी और एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं । यह सब देखकर मधुबाला के पिता अताउल्ला के मन में लालच आ गया। वह अधिक पैसों की मांग करने लगा। उसका अनुबंध पचास हजार रुपयों का था लेकिन वह पच्चीस हजार और मांगने लगा। आसिफ ने उसकी इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। एक दिन उन्हें अत्यधिक महत्त्वपूर्ण दृश्य को फिल्माना था और उन्हें अंदेशा था कि अताउल्ला उसे करने से पहले पैसों की मांग करके उसे नहीं करने देगा।
तब उन्होंने ‘मुगल-ए-आजम’ के जनसंपर्क अधिकारी तारकनाथ गांधी को बुलाकर समझाया कि आज तुम उसे कहीं ले जाओ और किसी बात में उलझाकर रखो। इन दिनों अताउल्ला के हाथों में काफी पैसा रहता था। इसलिए वह सट्टा, जुआ, ताश आदि बुरी आदतों का शिकार बन चुका था। तब आसिफ और तारकनाथ में तय हुआ कि ताश के खेल में अताउल्ला को पूरी तरह उलझाकर रखा जाए और इधर जल्द से जल्द शूटिंग पूरी की जाए। अताउल्ला हमेशा की तरह मधुबाला को लेकर उपस्थित हुआ। उसके साथ आसिफ तथा और लोगों ने इधर-उधर की बातें की। तारकनाथ भी उनमें शामिल हुआ और शूटिंग शुरू होने के समय तारकनाथ ने अताउल्ला को रमी खेलने की चुनौती दे दी। वह तारकनाथ के साथ पैसे लगाकर रमी खेलने के लिए तैयार हो गया। दोनों दूर एक कमरे में जाकर रमी खेलने लगे।
आसिफ ने तारकनाथ को पहले ही समझा दिया था कि तुम कभी नहीं जीतोगे, हमेशा हारते रहोगे और अताउल्ला को पैसे जीतने दोगे। आसिफ ने उसकी जेब में एक हजार रुपये पहले ही रख दिए थे। योजना के अनुसार अताउल्ला पहले दांव से ही जीतने लगा। कुछ देर बाद तारकनाथ के रूप खत्म हो गए,तब वह पांच सौ रुपये और ले आए। उस दिन की शूटिंग खत्म होने की घोषणा तक अताउल्ला बारह सौ रुपये जीत गया था और वह बहुत खुश था। इस बीच उस दिन आसिफ को सलीम-अनारकली के बीच के उस यादगार उत्कट प्रणय दृश्य को फिल्माना था जिसमें हाथ में श्वेत-शुभ्र पंख लेकर सलीम हौले-हौले उसे अनारकली के गालों पर फेर रहा है। वह भी मन ही मन सलीम से एकरूप हो चुकी है। सलीम और अनारकली आगे बढ़ते हैं तथा उसके गालों पर पंख फेरते हुए भावावेश में वे एक-दूसरे का चुंबन लेते हैं लेकिन उसी क्षण कैमरे और चुंबन के बीच में शुभ्र-श्वेत पंख आकर ठहर जाता है।
भारतीय फिल्मी परदे पर इससे पहले कई चुंबन दृश्य दिखाए गए लेकिन उनमें भाव उत्कटता के स्थान पर कामुकता ही अधिक दिखाई देती है। लेकिन ‘मुगल-ए-आजम’ के सलीम और अनारकली के इस चुंबन दृश्य को देखते समय उसमें कहीं भी कामुकता अथवा अश्लीलता दिखाई नहीं देती है। अत्यंत कोमलतापूर्ण और काव्यात्मक रूप में फिल्माया गया यह दृश्य आज भी अपने आप में अनूठा प्रणय दृश्य बन पड़ा है।
चलते-चलते
इस फिल्म का सबसे चर्चित गीत “प्यार किया तो डरना क्या” के लिए एक विशेष शीशमहल बनवाया गया था और इसे रंगीन फिल्माया गया था। शीशमहल बनवाने में आसिफ और उसके सहयोगियों को पूरे दो साल खपना पड़ा। जहां नजर पहुंचे, वहां शीशे और आईने लगवाकर यह सेट तैयार किया गया था। इसके लिए आवश्यक शीशे खास तौर पर बेल्जियम से मंगाए गए थे। उन्हें नजाकत और नफासत से तरह-तरह के आकार देने का काम आगा सिराजी को सौंपा गया था।
यह सेट इतना भव्य था कि इसका एक छोर बिलकुल स्टूडियो के भीतर वाले हिस्से से लगा हुआ था और दूसरा छोर स्टूडियो के प्रवेश द्वार से सटा हुआ था। ऐसे विराट सेट पर फोटोग्राफी करना कठिन बात थी। फोटोग्राफर आरडी माथुर ने अब तक ब्लैक एंड व्हाइट में ही फोटोग्राफी की थी। माथुर ने आसिफ को सलाह दी कि प्रारंभ में इसका थोड़ा रिहर्सल कराकर यह देखेंगे कि इस सेट पर इसकी फोटोग्राफी कैसे होती है? पहली बार जब बिजली के बड़े-बड़े बल्ब जलाकर कलाकारों के साथ फोटोग्राफी की पूरी तैयारी की गई, तब सबकी आंखें चौंधिया गई क्योंकि हर शीशे और आईने से लाइट फेंकी जा रही थी और चारों ओर तेज प्रकाश फैल जाने के कारण फोटोग्राफी को स्थगित करना पड़ता था।
तरह-तरह के प्रयोग करने के बाद यह सुझाया गया कि इन शीशों पर सीधे लाइट छोड़ने के बदले प्रकाश को परावर्तित करके छोड़ा जाए जिससे प्रकाश बहुत तेज न होकर मद्धिम हो जाएगा। तब शीशमहल पर उस प्रकार से प्रकाश की योजना कर, थोड़ा सा फिल्मांकन किया गया और तब माथुर के चेहरे पर संतोष दिखाई दिया लेकिन आसिफ इससे भी संतुष्ट नहीं थे। उन दिनों सिर्फ लंदन में ही टेक्नीकलर पद्धति के रंगों की रासायनिक प्रक्रिया करके पक्की फिल्म बनाई जाती थी। वहां से आए परिणामों को आसिफ ने जब अपनी आंखों से देखा तब कहीं उसे इस प्रयोग के प्रति विश्वास हुआ और फिर आगे बढ़ने का उसने निर्णय किया।
दो सालों की लगातार दिन-रात की मेहनत से तैयार किए गए इस सेट पर उस समय तीस लाख रुपये खर्च हो गए थे। इस सेट को लेकर जगह-जगह चर्चाएं भी होती थीं। इस सेट को बनाने और रंगीन फिल्माने की बात पर इस फिल्म की शूटिंग छह महीने रुकी रही और हालात यहां तक पहुंच गए कि निर्माता शापूरजी ने आसिफ को हटकर यह फिल्म निर्देशन के लिए सोहराब मोदी को सौंपने की तैयारी कर ली और एक दिन सोहराब मोदी को सेट पर लेकर भी पहुंच गए लेकिन लेकिन मधुबाला के यह कहते ही कि इस फिल्म में मेरा कॉन्ट्रेक्ट आसिफ के निर्देशन में हुआ है , अगर कोई और इस फिल्म को करेगा तो मैं काम नहीं करूंगी पर थक हार कर शापूरजी को आसिफ को ही निर्देशन सौंपना पड़ा।
मजेदार बात यह रही कि 1951 से 1960 के बीच के 9 साल के दर्मियान ‘मुगल-ए-आजम’ के इस सेट पर अनगिनत देशी-विदेशी मेहमान आए और अनगिनत दावतें भी हुईं। इन मेहमानों में सऊदी अरब के शेख सऊद बिन अब्दुल अजीज, अफगानिस्तान के शाही खानदान के लोग, नेपाल के वजीर-ए-आजम, इटली के मशहूर फिल्मकार राबर्टो रोजोलिनी, डॉक्टर जिवागो और लॉरेंस ऑफ अरेबिया के मशहूर हिदायतकार डेविड लीन, रूस और चीन के सरकारी कल्चरल डेलीगेशंस भी शामिल रहे।