TAASIR :–NEERAJ – 04, Oct
‘स्वच्छ और स्वस्थ समाज के लिए आध्यात्मिकता’ विषय पर आयोजित इस ग्लोबल समिट में आप सब के बीच उपस्थित होकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हो रही है। जिस संस्था का लक्ष्य है: “स्व परिवर्तन से विश्व परिवर्तन”, उसके द्वारा इस विषय पर ग्लोबल समिट का आयोजन सर्वथा उचित है। कल शाम और आज मानसरोवर में ध्यान करके मुझे असीम आनंद की अनुभूति हुई। कल मैं सभी राजयोगी भाई-बहनो से भी मिली। लेकिन राजयोगी निर्वैर भाईजी की कमी महसूस हुई। वे आजीवन मानवता के कल्याण के प्रति समर्पित रहे। वैश्विक शांति और नैतिकता पर आधारित समाज-निर्माण के प्रयासों के लिए उनको हमेशा याद किया जाएगा। मैं उनकी पुण्य स्मृति को नमन करती हूं। आध्यात्मिकता का मतलब धार्मिक होना या सांसारिक कार्यों का त्याग कर देना नहीं है। आध्यात्मिकता का अर्थ है, अपने भीतर की शक्ति को पहचान कर अपने आचरण और विचारों में शुद्धता लाना। मनुष्य अपने कर्मों का त्याग करके नहीं, बल्कि अपने कर्मों को सुधार कर बेहतर इंसान बन सकता है। विचारों और कर्मों में शुद्धता जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन और शांति लाने का मार्ग है। यह एकस्वस्थ और स्वच्छ समाज के निर्माण के लिए भी आवश्यक है। यह माना जाता है कि स्वच्छ शरीर में ही पवित्र
होता है। सभी परम्पराओं में स्वच्छता को महत्व दिया जाता है। कोई भी पवित्र क्रिया करने से पहले स्वयं और अपने परिवेश की साफ-सफाई का ध्यान रखा जाता है। लेकिन स्वच्छता केवल बाहरी वातावरण में नहीं, बल्कि हमारे विचारों और कर्मों में भी होनी चाहिए। शारीरिक, मानसिक और आत्मिक स्वच्छता एक स्वस्थ जीवन की कुंजी है। अगर हम
मानसिक और आत्मिक रूप से स्वच्छ नहीं हैं, तो बाहरी स्वच्छता निष्फल रहेगी। आध्यात्मिक मूल्यों का तिरस्कार करके केवल भौतिक प्रगति का मार्ग अपनाना अंततः विनाशकारी ही सिद्ध होता है। स्वच्छ मानसिकता के आधार पर ही समग्र स्वास्थ्य संभव होता है। अच्छे स्वास्थ्य के कई आयाम होते हैं जैसे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक स्वास्थ्य। ये सभी आयाम परस्पर जुड़े हुए हैं और हमारे जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं। भावनात्मक और मानसिक स्वास्थ्य सही सोच पर निर्भर करता है, क्योंकि हमारे विचार ही शब्दों और व्यवहार का रूप लेते हैं। दूसरों के प्रति कोई राय बनाने से पहले हमें अपने अन्तर्मन में झांकना चाहिए। जब हम किसी दूसरे की परिस्थिति में अपने आप को रख कर देखेंगे तब सही राय बना पाएंगे। संत कबीर ने कहा है: हमारे पूर्वजों ने अंतःकरण की शुद्धता के लिए आहार की शुद्धता पर ज़ोर दिया था। छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है “आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि:” अर्थात् आहार की शुद्धता से अंतःकरण शुद्ध होता है। शुद्ध आहार के लिए शुद्ध अन्न उपजाने की ज़रूरत है। शुद्ध अन्न उपजाना मिट्टी, पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक है। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि सरकार द्वारा रासायनिक खाद की जगह जीवामृत जैसी प्राकृतिक खाद और बीजामृत जैसे बीज-पोषक तत्त्वों की सहायता से प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। प्राकृतिक खेती
से स्वच्छ अन्न, तथा स्वच्छ अन्न से स्वस्थ मन की कड़ी बनती है।